कई बार घर के आँगन में
कितने भी सूनेपन में
चहँक उठती थी गौरैया औ
कलरव होता था मन में।
अब आँगन-आँगन मन खोये हैं
संवेदनाओं के स्वर सोये हैं।
सुख में साथ नहीं हैं अब सब
दुःख में भी एकाकी रोये हैं।।
भीड़ में भी एकाकी हैं
मन से पूरे संतापी हैं।
अनेक राग भरे स्वर में भी
पर एक राग के अभिशापी हैं।।
आभासों में ही रह जाते
आभासों में हम जीते हैं।
नहीं ध्यान है हमको कि
ये भरे हुये मन कितने रीते हैं?
-ममता
कितने भी सूनेपन में
चहँक उठती थी गौरैया औ
कलरव होता था मन में।
अब आँगन-आँगन मन खोये हैं
संवेदनाओं के स्वर सोये हैं।
सुख में साथ नहीं हैं अब सब
दुःख में भी एकाकी रोये हैं।।
भीड़ में भी एकाकी हैं
मन से पूरे संतापी हैं।
अनेक राग भरे स्वर में भी
पर एक राग के अभिशापी हैं।।
आभासों में ही रह जाते
आभासों में हम जीते हैं।
नहीं ध्यान है हमको कि
ये भरे हुये मन कितने रीते हैं?
-ममता
No comments:
Post a Comment