Sunday, July 31, 2016
Thursday, July 28, 2016
संकीर्णता
थोड़ा मन को बड़ा करो
सब हरा-भरा हो जायेगा।
सूखी न होगी वर्षाऋतु,
वसन्त न सूखा जायेगा।।
सँकरे मन की सँकरी गलियों को
थोड़ा विस्तार दो।
थोड़ा आँखें और खोलकर
देखो इस संसार को।।
सब हरा-भरा हो जायेगा।
सूखी न होगी वर्षाऋतु,
वसन्त न सूखा जायेगा।।
सँकरे मन की सँकरी गलियों को
थोड़ा विस्तार दो।
थोड़ा आँखें और खोलकर
देखो इस संसार को।।
Monday, July 25, 2016
जीवन
जीवन एक जंजीर नहीं है।
यह प्रभु का उन्मुक्त हास है।
बस यूँ बहता नीर नहीं है।
जीवन एक जंजीर नहीं है।
गंगा का यह जल है पावन
जो करता है कलुष प्रक्षालन।
जीवन नीरव नीड़ नहीं है।
जीवन एक जंजीर नहीं है।।
रक्त कसैला विष भी कटु है
शत्रु जो इसका वह बहु पटु है
जीवन उसकी पीर नहीं है
जीवन एक जंजीर नहीं है
प्रवाह यह महासागर तक
कभी न रुकती इसकी गति-युति
यह चलता हुआ शरीर नहीं है
जीवन एक जंजीर नहीं है।
गति है लय है छन्द ताल है
वाद्यों का यह वाद्यजाल है
यह केवल मंजीर नहीं है
जीवन एक जंजीर नहीं है।।
यह प्रभु का उन्मुक्त हास है।
बस यूँ बहता नीर नहीं है।
जीवन एक जंजीर नहीं है।
गंगा का यह जल है पावन
जो करता है कलुष प्रक्षालन।
जीवन नीरव नीड़ नहीं है।
जीवन एक जंजीर नहीं है।।
रक्त कसैला विष भी कटु है
शत्रु जो इसका वह बहु पटु है
जीवन उसकी पीर नहीं है
जीवन एक जंजीर नहीं है
प्रवाह यह महासागर तक
कभी न रुकती इसकी गति-युति
यह चलता हुआ शरीर नहीं है
जीवन एक जंजीर नहीं है।
गति है लय है छन्द ताल है
वाद्यों का यह वाद्यजाल है
यह केवल मंजीर नहीं है
जीवन एक जंजीर नहीं है।।
Saturday, July 23, 2016
एकाकीपन
कई बार घर के आँगन में
कितने भी सूनेपन में
चहँक उठती थी गौरैया औ
कलरव होता था मन में।
अब आँगन-आँगन मन खोये हैं
संवेदनाओं के स्वर सोये हैं।
सुख में साथ नहीं हैं अब सब
दुःख में भी एकाकी रोये हैं।।
भीड़ में भी एकाकी हैं
मन से पूरे संतापी हैं।
अनेक राग भरे स्वर में भी
पर एक राग के अभिशापी हैं।।
आभासों में ही रह जाते
आभासों में हम जीते हैं।
नहीं ध्यान है हमको कि
ये भरे हुये मन कितने रीते हैं?
-ममता
कितने भी सूनेपन में
चहँक उठती थी गौरैया औ
कलरव होता था मन में।
अब आँगन-आँगन मन खोये हैं
संवेदनाओं के स्वर सोये हैं।
सुख में साथ नहीं हैं अब सब
दुःख में भी एकाकी रोये हैं।।
भीड़ में भी एकाकी हैं
मन से पूरे संतापी हैं।
अनेक राग भरे स्वर में भी
पर एक राग के अभिशापी हैं।।
आभासों में ही रह जाते
आभासों में हम जीते हैं।
नहीं ध्यान है हमको कि
ये भरे हुये मन कितने रीते हैं?
-ममता
Saturday, July 9, 2016
भुजंग सरीखा कौन खड़ा है
हम चन्दन हैं
तुम चन्दन हो
हम-तुम दोनों चन्दन हैं।
पर यह भुजंग सरीखा कौन खड़ा है
जिसने हमको आधार बना
वैमनस्य का महल गढ़ा है।।
तुम चन्दन हो
हम-तुम दोनों चन्दन हैं।
पर यह भुजंग सरीखा कौन खड़ा है
जिसने हमको आधार बना
वैमनस्य का महल गढ़ा है।।
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