इस संसार के लिये
हम उतने ही अनोखे हैं
जितने हमारे
पूर्वज थे।
यह संसार हमारे लिये
उतना ही अनोखा है
जितना हमारे पूर्वजों के लिये था।
बस अंतर यह है कि
वे इस अनोखेपन के साथ
इस अनोखेपन को मानकर
रमते थे, जीते थे।
हमने इस अनोखेपन को
आक्रान्त कर
पदाक्रान्त कर
जीना सीख लिया है।
संसार के अनोखेपन से
बढ़कर
स्वयं को अनोखा मान लिया है।
हमारे पूर्वज इठलाते नहीं थे
अकड़ नहीं दिखाते थे
आँख नहीं दिखाते थे
न तर्जनी उठाते थे।
पर हमने फावड़ा और क्रेन
उठाना सीख लिया है
डायनामाइट लगाकर
चट्टान और पर्वत उड़ाना सीख लिया है।
हमारे पूर्वज
प्रार्थना करते थे
इस धरती की
कि जो भी मैं खोदूं
तुम तुरंत कर लो भरपायी
कहते थे
"यत्ते भूमे विखनामि
क्षिप्रं तदपि रोहतु"
पर हमने
यह विनय भाव
छोड़ दिया है
यह प्रार्थना भूल गये हैं।
क्योंकि हमारा अनोखापन
हमारी नजर में
सृष्टि से बढ़कर है।।
अब हम याचना नहीं करते
आगे बढ़ते हैं।
पूर्वजों के मूल्यों में
नहीं जीते।
अपने नये मूल्य गढ़ते हैं।
हम सफलताओं को मुट्ठी में भर
रोज नये पहाड़ चढ़ते हैं
नापते हैं नयी धरती
और नयी उड़ान भरते हैं।
हम सभी को तुच्छ, निरीह
निम्न, बुद्धिहीन समझते हैं।
या यूँ कहें कि अपनी उन्नति - प्रगति से
उनको कमतर सिद्ध करते हैं।
हम प्राणियों में
स्वयंसिद्ध, स्वयंभाषित
स्वयंभू, स्वघोषित सर्वबुद्धिमान
प्राणी हैं।
इसलिये हम पूर्वजों जैसे
विनीत नहीं होते।
उन सा प्रकृति के प्रति
अनुग्रहीत नहीं होते।।
-ममता त्रिपाठी
हम उतने ही अनोखे हैं
जितने हमारे
पूर्वज थे।
यह संसार हमारे लिये
उतना ही अनोखा है
जितना हमारे पूर्वजों के लिये था।
बस अंतर यह है कि
वे इस अनोखेपन के साथ
इस अनोखेपन को मानकर
रमते थे, जीते थे।
हमने इस अनोखेपन को
आक्रान्त कर
पदाक्रान्त कर
जीना सीख लिया है।
संसार के अनोखेपन से
बढ़कर
स्वयं को अनोखा मान लिया है।
हमारे पूर्वज इठलाते नहीं थे
अकड़ नहीं दिखाते थे
आँख नहीं दिखाते थे
न तर्जनी उठाते थे।
पर हमने फावड़ा और क्रेन
उठाना सीख लिया है
डायनामाइट लगाकर
चट्टान और पर्वत उड़ाना सीख लिया है।
हमारे पूर्वज
प्रार्थना करते थे
इस धरती की
कि जो भी मैं खोदूं
तुम तुरंत कर लो भरपायी
कहते थे
"यत्ते भूमे विखनामि
क्षिप्रं तदपि रोहतु"
पर हमने
यह विनय भाव
छोड़ दिया है
यह प्रार्थना भूल गये हैं।
क्योंकि हमारा अनोखापन
हमारी नजर में
सृष्टि से बढ़कर है।।
अब हम याचना नहीं करते
आगे बढ़ते हैं।
पूर्वजों के मूल्यों में
नहीं जीते।
अपने नये मूल्य गढ़ते हैं।
हम सफलताओं को मुट्ठी में भर
रोज नये पहाड़ चढ़ते हैं
नापते हैं नयी धरती
और नयी उड़ान भरते हैं।
हम सभी को तुच्छ, निरीह
निम्न, बुद्धिहीन समझते हैं।
या यूँ कहें कि अपनी उन्नति - प्रगति से
उनको कमतर सिद्ध करते हैं।
हम प्राणियों में
स्वयंसिद्ध, स्वयंभाषित
स्वयंभू, स्वघोषित सर्वबुद्धिमान
प्राणी हैं।
इसलिये हम पूर्वजों जैसे
विनीत नहीं होते।
उन सा प्रकृति के प्रति
अनुग्रहीत नहीं होते।।
-ममता त्रिपाठी
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