वे गाँव के बच्चे
जो प्राइमरी स्कूल में
पढ़ते हैं।
बोरे और टाट पर
बैठते हैं।
उनके पास सुंदर
स्कूल बैग नहीं होता
कपड़ा या सीमेंट की बोरी सिल
एक झोला बनाते हैं
उसी को बस्ता कहते हैं।
उसमें बड़ी तहजीब से
अपनी किताबें सम्हालते हैं।
अब वे तख्ती पर नहीं लिखते
न ही कालिख खोजते हैं।
अब वे भी पेन्सिल से
अक्षर सीखते हैं।
अब वे खड़ियामिट्टी
बुतका दवात रोशनाई
स्याही सेंठा की कलम
सबसे मुक्त हैं।
वे गाँव के बच्चे
प्राइमरी स्कूल में
पढ़ते हैं
एक पाख
या कहें महीनों पहले से
स्वतंत्रता दिवस
गणतंत्र दिवस
गाँधी जयन्ती की
तैयारी करते हैं।
महीनों तैयारी में उल्लसित रहते हैं।
वे गाँव के बच्चे
कविता और भाषण का
एक-एक शब्द
तैयार करते हैं
रटते हैं
दोहराते हैं।
वे गाँव के बच्चे
इन राष्ट्रपर्वों
के बारे में
जानते हैं।
गौरवान्वित होते हैं।
वे गाँव के बच्चे
नंगे पैर ही सही
प्रभातफेरी निकालते हैं।
अपने शरीर के सामर्थ्य से बढ़कर
भारत माता की जय
वंदेमातरम्
जयहिंद बोलते हैं।
प्रसंशा के दो शब्द
और पीठ थपथपाने
खुश हो जाते हैं।
गाँव के बच्चे
बहुत योजनायें बनाते हैं
स्वतंत्रता दिवस के लिये
गणतंत्र दिवस के लिये
और अन्य पर्वों के लिये
प्रभातफेरी के बाद
अपनी कविता
भाषण सुनाते हैं
लड्डू खाते हैं
शाबाशी पाते हैं
और आजादी का भाव लिये
गर्व से भरे
घर लौटते हैं।
वे गाँव के बच्चे
जिन्होंने देश देखा भी नहीं होता
लबरेज होते हैं
राष्ट्राभिमान से।
वे गर्व करते हैं भगतसिंह पर
लोकमान्य तिलक
वीरसावरकर
गाँधी, आजाद
लाला लाजपतराय
और अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों
क्रान्तिकारियों पर।
वे गाँव के बच्चे
बताशा देख
खुश हो जाते हैं।
छोटे से पुरस्कार पर
उछल पड़ते हैं।
बढ़ जाता है
उनका उत्साह
और वे बहुत कुछ करना चाहते हैं
अपने लियै
परिवार के लिए
गाँव के लिए
देश के लिये।
पर बड़े होकर
जब वे शहर पहुंचते
तो पहले ही कदम फर
उनकी कल्पना में
दरार आ जाती है
कदम दर कदम
उनकी कल्पना मरने लगती है
और उनमें जमने लगता है
नगरीय शैवाल
जिसकी परिधि केवल
अपने तक सीमित रहती है।
अब भी राष्ट्रीय पर्वों पर
उसमें उमंग होती है।
पर अपने आप में घिरी नगरीय सभ्यता में
उसे वो गाँव सी उमंग नहीं मिलती
वो गांव सा उत्साह नहीं दिखता।
राष्ट्रपर्वों को
एक रविवारीय वीरानी दिखती है।
वे चुपचाप उसे देख
लौट आते हैं अपनी
प्रकाश विहीन कोठरी में
और प्रकाश के डिब्बे के आगे
बैठ जाते हैं ।
देखते हैं
लालकिले की प्राचीर
भव्यभाव
सुनते हैं भाषण
पर उन्हें वह
निश्छलता और
उल्लास नहीं दिखता
जो प्राइमरी के प्रभातफेरी में
दिखता था।
उतनी खुशी नहीं मिलती
जो लड्डुओं बताशों
से मिलती थी।
ठंडे निःश्वास के साथ वे
मन को मना लेते हैं
यह कहकर कि
शहर में ऐसे ही होता है।
जो प्राइमरी स्कूल में
पढ़ते हैं।
बोरे और टाट पर
बैठते हैं।
उनके पास सुंदर
स्कूल बैग नहीं होता
कपड़ा या सीमेंट की बोरी सिल
एक झोला बनाते हैं
उसी को बस्ता कहते हैं।
उसमें बड़ी तहजीब से
अपनी किताबें सम्हालते हैं।
अब वे तख्ती पर नहीं लिखते
न ही कालिख खोजते हैं।
अब वे भी पेन्सिल से
अक्षर सीखते हैं।
अब वे खड़ियामिट्टी
बुतका दवात रोशनाई
स्याही सेंठा की कलम
सबसे मुक्त हैं।
वे गाँव के बच्चे
प्राइमरी स्कूल में
पढ़ते हैं
एक पाख
या कहें महीनों पहले से
स्वतंत्रता दिवस
गणतंत्र दिवस
गाँधी जयन्ती की
तैयारी करते हैं।
महीनों तैयारी में उल्लसित रहते हैं।
वे गाँव के बच्चे
कविता और भाषण का
एक-एक शब्द
तैयार करते हैं
रटते हैं
दोहराते हैं।
वे गाँव के बच्चे
इन राष्ट्रपर्वों
के बारे में
जानते हैं।
गौरवान्वित होते हैं।
वे गाँव के बच्चे
नंगे पैर ही सही
प्रभातफेरी निकालते हैं।
अपने शरीर के सामर्थ्य से बढ़कर
भारत माता की जय
वंदेमातरम्
जयहिंद बोलते हैं।
प्रसंशा के दो शब्द
और पीठ थपथपाने
खुश हो जाते हैं।
गाँव के बच्चे
बहुत योजनायें बनाते हैं
स्वतंत्रता दिवस के लिये
गणतंत्र दिवस के लिये
और अन्य पर्वों के लिये
प्रभातफेरी के बाद
अपनी कविता
भाषण सुनाते हैं
लड्डू खाते हैं
शाबाशी पाते हैं
और आजादी का भाव लिये
गर्व से भरे
घर लौटते हैं।
वे गाँव के बच्चे
जिन्होंने देश देखा भी नहीं होता
लबरेज होते हैं
राष्ट्राभिमान से।
वे गर्व करते हैं भगतसिंह पर
लोकमान्य तिलक
वीरसावरकर
गाँधी, आजाद
लाला लाजपतराय
और अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों
क्रान्तिकारियों पर।
वे गाँव के बच्चे
बताशा देख
खुश हो जाते हैं।
छोटे से पुरस्कार पर
उछल पड़ते हैं।
बढ़ जाता है
उनका उत्साह
और वे बहुत कुछ करना चाहते हैं
अपने लियै
परिवार के लिए
गाँव के लिए
देश के लिये।
पर बड़े होकर
जब वे शहर पहुंचते
तो पहले ही कदम फर
उनकी कल्पना में
दरार आ जाती है
कदम दर कदम
उनकी कल्पना मरने लगती है
और उनमें जमने लगता है
नगरीय शैवाल
जिसकी परिधि केवल
अपने तक सीमित रहती है।
अब भी राष्ट्रीय पर्वों पर
उसमें उमंग होती है।
पर अपने आप में घिरी नगरीय सभ्यता में
उसे वो गाँव सी उमंग नहीं मिलती
वो गांव सा उत्साह नहीं दिखता।
राष्ट्रपर्वों को
एक रविवारीय वीरानी दिखती है।
वे चुपचाप उसे देख
लौट आते हैं अपनी
प्रकाश विहीन कोठरी में
और प्रकाश के डिब्बे के आगे
बैठ जाते हैं ।
देखते हैं
लालकिले की प्राचीर
भव्यभाव
सुनते हैं भाषण
पर उन्हें वह
निश्छलता और
उल्लास नहीं दिखता
जो प्राइमरी के प्रभातफेरी में
दिखता था।
उतनी खुशी नहीं मिलती
जो लड्डुओं बताशों
से मिलती थी।
ठंडे निःश्वास के साथ वे
मन को मना लेते हैं
यह कहकर कि
शहर में ऐसे ही होता है।
बहुत खूब
ReplyDeleteसुंदर स्रजन
ReplyDeleteVery well written Mamta ji first time enter ur blog ....and i feel very happy
ReplyDeleteबहुत खूब
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