Thursday, June 22, 2017

तुम्हारा जल जाना ही अच्छा है

तुम जल रहे हो
इसलिए नहीं जल रहे हो
कि जलना तुम्हारा स्वभाव है।
तुम दहक रहे हो
अंगार बन रहे हो
इसलिये नहीं कि
तुम आग हो।
तुम आग नहीं
आग को समर्पित तृण हो
जलो खूब जलो
दहको खूब दहको
पर याद तुम घर-घर चूल्हा
जलाने वाले अंगार
नहीं बन सकते
तुम वह आग और
अगियार नहीं बन सकते।
क्योंकि वह आग
जलती है स्वस्ति के लिए
स्वधा के स्वर के लिये।।
पर तुम तो जलते हो
दहकते हो
दूसरों को
जलाने के लिये
दूसरों को भस्मीभूत बनाने के लिए
इसलिए तुम अर्चि नहीं हो
तुम अंगार नहीं हो
तुम ज्वाल नहीं हो।
तुम तृण हो
खर-पतवार हो।
तुम्हारा जल जाना ही
भस्म हो जाना ही
राख बनना
और उड़ जाना ही।
अच्छा है
परिवार के लिए
समाज के लिए
राष्ट्र के लिए
विश्व के लिए
ब्रह्माण्ड के लिए।

1 comment:

  1. बहुत सुंदर कविता है...!

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