Tuesday, August 15, 2017

गाँव के बच्चे

वे गाँव के बच्चे
जो प्राइमरी स्कूल में
पढ़ते हैं।
बोरे और टाट पर
बैठते हैं।
उनके पास सुंदर
स्कूल बैग नहीं होता
कपड़ा या सीमेंट की बोरी सिल
एक झोला बनाते हैं
उसी को बस्ता कहते हैं।
उसमें बड़ी तहजीब से
अपनी किताबें सम्हालते हैं।
अब वे तख्ती पर नहीं लिखते
न ही कालिख खोजते हैं।
अब वे भी पेन्सिल से
अक्षर सीखते हैं।
अब वे खड़ियामिट्टी
बुतका दवात रोशनाई
स्याही सेंठा की कलम
सबसे मुक्त हैं।
वे गाँव के बच्चे
प्राइमरी स्कूल में
पढ़ते हैं
एक पाख
या कहें महीनों पहले से
स्वतंत्रता दिवस
गणतंत्र दिवस
गाँधी जयन्ती की
तैयारी करते हैं।
महीनों तैयारी में उल्लसित रहते हैं।
वे गाँव के बच्चे
कविता और भाषण का
एक-एक शब्द
तैयार करते हैं
रटते हैं
दोहराते हैं।
वे गाँव के बच्चे
इन राष्ट्रपर्वों
के बारे में
जानते हैं।
गौरवान्वित होते हैं।
वे गाँव के बच्चे
नंगे पैर ही सही
प्रभातफेरी निकालते हैं।
अपने शरीर के सामर्थ्य से बढ़कर
भारत माता की जय
वंदेमातरम्
जयहिंद बोलते हैं।
प्रसंशा के दो शब्द
और पीठ थपथपाने
खुश हो जाते हैं।
गाँव के बच्चे
बहुत योजनायें बनाते हैं
स्वतंत्रता दिवस के लिये
गणतंत्र दिवस के लिये
और अन्य पर्वों के लिये
प्रभातफेरी के बाद
अपनी कविता
भाषण सुनाते हैं
लड्डू खाते हैं
शाबाशी पाते हैं
और आजादी का भाव लिये
गर्व से भरे
घर लौटते हैं।
वे गाँव के बच्चे
जिन्होंने देश देखा भी नहीं होता
लबरेज होते हैं
राष्ट्राभिमान से।
वे गर्व करते हैं भगतसिंह पर
लोकमान्य तिलक
वीरसावरकर
गाँधी, आजाद
लाला लाजपतराय
और अन्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों
क्रान्तिकारियों पर।
वे गाँव के बच्चे
बताशा देख
खुश हो जाते हैं।
छोटे से पुरस्कार पर
उछल पड़ते हैं।
बढ़ जाता है
उनका उत्साह
और वे बहुत कुछ करना चाहते हैं
अपने लियै
परिवार के लिए
गाँव के लिए
देश के लिये।
पर बड़े होकर
जब वे शहर पहुंचते
तो पहले ही कदम फर
उनकी कल्पना में
दरार आ जाती है
कदम दर कदम
उनकी कल्पना मरने लगती है
और उनमें जमने लगता है
नगरीय शैवाल
जिसकी परिधि केवल
अपने तक सीमित रहती है।
अब भी राष्ट्रीय पर्वों पर
उसमें उमंग होती है।
पर अपने आप में घिरी नगरीय सभ्यता में
उसे वो गाँव सी उमंग नहीं मिलती
वो गांव सा उत्साह नहीं दिखता।
राष्ट्रपर्वों को
एक रविवारीय वीरानी दिखती है।
वे चुपचाप उसे देख
लौट आते हैं अपनी
प्रकाश विहीन कोठरी में
और प्रकाश के डिब्बे के आगे
बैठ जाते हैं ।
देखते हैं
लालकिले की प्राचीर
भव्यभाव
सुनते हैं भाषण
पर उन्हें वह
निश्छलता और
उल्लास नहीं दिखता
जो प्राइमरी के प्रभातफेरी में
दिखता था।
उतनी खुशी नहीं मिलती
जो लड्डुओं बताशों
से मिलती थी।
ठंडे निःश्वास के साथ वे
मन को मना लेते हैं
यह कहकर कि
शहर में ऐसे ही होता है।

Monday, June 26, 2017

मैं

इस संसार के लिये
हम उतने ही अनोखे हैं
जितने हमारे
पूर्वज थे।
यह संसार हमारे लिये
उतना ही अनोखा है
जितना हमारे पूर्वजों के लिये था।
बस अंतर यह है कि
वे इस अनोखेपन के साथ
इस अनोखेपन को मानकर
रमते थे, जीते थे।
हमने इस अनोखेपन को
आक्रान्त कर
पदाक्रान्त कर
जीना सीख लिया है।
संसार के अनोखेपन से
बढ़कर
स्वयं को अनोखा मान लिया है।
हमारे पूर्वज इठलाते नहीं थे
अकड़ नहीं दिखाते थे
आँख नहीं दिखाते थे
न तर्जनी उठाते थे।
पर हमने फावड़ा और क्रेन
उठाना सीख लिया है
डायनामाइट लगाकर
चट्टान और पर्वत उड़ाना सीख लिया है।
हमारे पूर्वज
प्रार्थना करते थे
इस धरती की
कि जो भी मैं खोदूं
तुम तुरंत कर लो भरपायी
कहते थे
"यत्ते भूमे विखनामि
क्षिप्रं तदपि रोहतु"
पर हमने
यह विनय भाव
छोड़ दिया है
यह प्रार्थना भूल गये हैं।
क्योंकि हमारा अनोखापन
हमारी नजर में
सृष्टि से बढ़कर है।।
अब हम याचना नहीं करते
आगे बढ़ते हैं।
पूर्वजों के मूल्यों में
नहीं जीते।
अपने नये मूल्य गढ़ते हैं।
हम सफलताओं को मुट्ठी में भर
रोज नये पहाड़ चढ़ते हैं
नापते हैं नयी धरती
और नयी उड़ान भरते हैं।
हम सभी को तुच्छ, निरीह
निम्न, बुद्धिहीन समझते हैं।
या यूँ कहें कि अपनी उन्नति - प्रगति से
उनको कमतर सिद्ध करते हैं।
हम प्राणियों में
स्वयंसिद्ध, स्वयंभाषित
स्वयंभू, स्वघोषित सर्वबुद्धिमान
प्राणी हैं।
इसलिये हम पूर्वजों जैसे
विनीत नहीं होते।
उन सा प्रकृति के प्रति
अनुग्रहीत नहीं होते।।
-ममता त्रिपाठी

मैं क्यों तुमको राग सुनाऊं?

मैं तुम्हें क्यों राग सुनाऊं
जब वीणा के स्वर सोये हैं।
तंत्री में जब राग नहीं है
शब्द बने अक्षर सोये हैं।
मानस में भूचाल मचा है
अंतस् झंझावात बसा है
कौड़ी भर की इस दुनिया में
कौड़ी में ही मन रमता है।।
फिर बोलो कैसे राग सुनाऊं?
स्पन्दन मृतप्राय पड़े हैं
क्रन्दन से हृदय भरे हैं
फिर कैसे मैं खुलकर गाऊं? 

Thursday, June 22, 2017

तुम्हारा जल जाना ही अच्छा है

तुम जल रहे हो
इसलिए नहीं जल रहे हो
कि जलना तुम्हारा स्वभाव है।
तुम दहक रहे हो
अंगार बन रहे हो
इसलिये नहीं कि
तुम आग हो।
तुम आग नहीं
आग को समर्पित तृण हो
जलो खूब जलो
दहको खूब दहको
पर याद तुम घर-घर चूल्हा
जलाने वाले अंगार
नहीं बन सकते
तुम वह आग और
अगियार नहीं बन सकते।
क्योंकि वह आग
जलती है स्वस्ति के लिए
स्वधा के स्वर के लिये।।
पर तुम तो जलते हो
दहकते हो
दूसरों को
जलाने के लिये
दूसरों को भस्मीभूत बनाने के लिए
इसलिए तुम अर्चि नहीं हो
तुम अंगार नहीं हो
तुम ज्वाल नहीं हो।
तुम तृण हो
खर-पतवार हो।
तुम्हारा जल जाना ही
भस्म हो जाना ही
राख बनना
और उड़ जाना ही।
अच्छा है
परिवार के लिए
समाज के लिए
राष्ट्र के लिए
विश्व के लिए
ब्रह्माण्ड के लिए।