Thursday, December 9, 2010
दैनिक-जीवन
हमारे दैनिक जीवन में इस समय इतनी कृत्रिमता व्याप्त हो गयी है कि हमें वास्तविकता और कृत्रिमता के मध्य अन्तर का भान तक नही होता । हम वास्तविकता से बहुत दूर होते जा रहे हैं। ’सभ्य’ दिखने के व्यामोह ने हमें वास्तव में असभ्यों की श्रेणी में लाकर खडा कर दिया है। समय के साथ-साथ समाज की आवश्यकताएं और मान्यताएं भी बदलती रहती हैं। वर्तमान समाज में फूहडपन तथाकथित सभ्यता का परिचायक बन गया है। मेरा यह कहने का अर्थ य्ह नही है कि इस समय समाज मे सभ्य लोगो की समाप्ति हो गयी है बल्कि मेरे कहने का अर्थ है कि उनकी संख्या अल्प हो गयी है और वो वर्तमान महानगरीय सभ्यता मे पिछडे हुये समझे जाते हैं। पर वह दिन अधिक दूर नही है जब व्यक्ति अपनी विलासिता से ऊबकर यही ’पिछ्डेपन का परिचायक’ जीवन जीने को विवश होगा।
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विचारों में पर्याप्त द्वंद पढ़ने को मिल रहा है । सभ्य दिखने की चाह है तो फूहड़पन के लिए स्थान तो नहीं होना चाहिए । दरअसल हम पहनावा को अपनी भाषा के रूप में इस्तेमाल करते हैं तो जो फूहड़पन एक संदर्भ में है वो हो सकता है दूसरे संदर्भ में न हो ।
ReplyDeleteअम्बरीष ढ़ाका